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ता हि श्रेष्ठ॑वर्चसा॒ राजा॑ना दीर्घ॒श्रुत्त॑मा। ता सत्प॑ती ऋता॒वृध॑ ऋ॒तावा॑ना॒ जने॑जने ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tā hi śreṣṭhavarcasā rājānā dīrghaśruttamā | tā satpatī ṛtāvṛdha ṛtāvānā jane-jane ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ता। हि। श्रेष्ठ॑ऽवर्चसा। राजा॑ना। दी॒र्घ॒श्रुत्ऽत॑मा। ता। सत्प॑ती॒ इति॒ सत्ऽप॑ती। ऋ॒त॒ऽवृधा॑। ऋ॒तऽवा॑ना। जने॑ऽजने ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:65» मन्त्र:2 | अष्टक:4» अध्याय:4» वर्ग:3» मन्त्र:2 | मण्डल:5» अनुवाक:5» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (दीर्घश्रुत्तमा) दीर्घकालपर्यन्त अत्यन्त शास्त्र को सुननेवाले (श्रेष्ठवर्चसा) श्रेष्ठ अध्ययन जिनका ऐसे (राजाना) प्रकाशमान जन वर्त्तमान हैं (ता) वे दोनों और जो (जनेजने) मनुष्य मनुष्य में (सत्पती) श्रेष्ठों के पालन करने और (ऋतावृधा) सत्य को बढ़ानेवाले (ऋतावाना) तथा सत्य विद्यमान जिनमें (ता, हि) उन्हीं दोनों का हम लोग निरन्तर सत्कार करें ॥२॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य बहुश्रुत, पूर्ण विद्यावाले, सत्य धर्म्म में निष्ठा करनेवाले और जो विद्या की प्रवृत्ति में प्रीति करनेवाले हों, वे ही उपदेशक अध्यापक होवें ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यौ दीर्घश्रुत्तमा श्रेष्ठवर्चसा राजाना वर्त्तेते ता यौ जनेजने सत्पती ऋतावृधा ऋतावाना वर्त्तेते ता हि वयं सततं सत्कुर्य्याम ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ता) तौ (हि) यतः (श्रेष्ठवर्चसा) श्रेष्ठं वर्चोऽध्ययनं ययोस्तौ (राजाना) प्रकाशमानौ (दीर्घश्रुत्तमा) यौ दीर्घकालं शृणुतस्तावतिशयितौ (ता) तौ (सत्पती) सतां पालकौ (ऋतावृधा) यावृतं सत्यं वर्धयतस्तौ (ऋतावाना) ऋतं सत्यं विद्यते ययोस्तौ (जनेजने) ॥२॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्या बहुश्रुताः पूर्णविद्याः सत्यधर्म्मनिष्ठा विद्याप्रवृत्तिप्रियाश्च स्युस्त एवोपदेशका अध्यापकाश्च भवन्तु ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे बहुश्रुत, पूर्ण विद्यायुक्त, सत्यधर्मनिष्ठायुक्त व विद्याप्रेमी असतात त्यांनीच उपदेशक व अध्यापक बनावे. ॥ २ ॥